|| हरि ૐ तत्सत ||

प्राण चिकित्सा

प्राण चिकित्सा क्या है?

प्राण चिकित्सा एक अद्भुत विधि है जिसका आविष्कार पूज्य विभाकरजीने दादा ने किया था।

आमतौर पर पानी ढलान की तरफ सहज बहता है। प्राण भी इसी सिद्धांत पर काम करता हैं। हम प्राणसे भरे समुद्र में रहते हैं। जिस पात्रकी प्राण ग्रहण करनेकी मुलभुत क्षमता ज्याद, वह ब्रह्मांड स्थित प्राण से अधिकाधिक प्राण ग्रहण कर जीवन जी सकता है। ऐसे व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। जो लोग नियमित रूप से ध्यान, अभ्यास और योग करते हैं, वह इस ब्रह्मांड स्थित प्राण के समुद्र से अधिक प्राण सहजतासे ग्रहण कर स्वस्थ जीवन जी सकते है

 

जो कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन जीना चाहता है और जिसने शक्तिपात द्वारा ध्यानयोगमें दीक्षा प्राप्त की है, वह व्यक्तिका प्राण शरीर सामान्य पात्रोकी तुलनामे अधिक विक्सित होता है जिसकी वजह से वह व्यक्ति प्राण ऊर्जाको सहज प्रसारित करता रहता है. ऐसे विकसित प्राण शरीर के व्यक्तिसे संपर्कमें आने से किसीभी व्यक्तिमें प्राण ऊर्जाका विनिमय अपने आप चालु हो जाता है.

पूज्य विभाकरजीने इसी सिद्धांत का उपयोग करते हुए, पैतालीस ( ४५) साल पहले प्राण चिकित्सा विधि की रचना की थी.  मनुष्य के भौतिक शरीर को कार्यरत रखने के लिए शरीरके भीतर  विभिन्न अवयव है जैसे कि हृदय, फेफड़े, यकृत, आंतों, गुर्दे। हर एक अवयवका अपना कार्यक्षेत्र है । अब, किसी कारण से, इन अंगों में बीमारी घुस जाती है तो बीमारी निकालने के लिए, हम बाहरी इलाज जैसे की एलोपेथी, आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक जैसी विभन्न दवाईया लेते हैं। बार-बार दवाइयां लेनेसे असर शरीर में कुछ न कुछ असर होती ही है जो की एक या दूसरे स्वरुपमे शरीर द्वारा प्रकट होती है.

 

यह सारी बात को हम प्राण के रूप में समझते हैं। मनुष्यकी रीढ़ की हड्डी में शरीर के साथ-साथ सात सूक्ष्म चक्र भी होते हैं। आध्यात्मिक साधना में यह चक्र अति महत्वपूर्ण हैं। ये चक्र शरीर के विभिन्न अंगों से जुड़े होते हैं। वास्तव में, शरीर संपूर्ण प्राणमय या विद्युतमय भी है, बिलकुल हमारे घर की बिजली की तरह. इसमें भी दो ध्रुव होते हैं. चक्र यह घन या पॉजिटिव ध्रुव और विभिन्न अवयव ऋण या नेगेटिव ध्रुव की तरह कार्य करते हैं और बिजलीकी सर्किट को सम्पूर्ण करते हैं। जब शरीर बीमार पड़ता है तब पॉजिटिव और नेगेटिव ध्रुव आपसमे बदली हो जाते है और चक्र नेगेटिव ध्रुव बन जाते है और अवयव पॉजिटिव ध्रुव बन जाते है. यदि शक्ति संपन्न व्यक्ति ने प्राण ऊर्जा द्वारा सर्किट बदल कर वापस चक्र को पॉजिटिव और अवयव को नेगेटिव ध्रुव बना देता है तब बीमार आदमी धीरे धीरे सहज स्वस्थ होता जाता है.

प्राणचिकित्स तो यह कार्य करेने से पहले सिद्ध गुरु से शक्तिपात दीक्षा लेनी चाहिए, नियमित रूप से ध्यान साधना करनी चाहिए, प्राण चिकित्सा शिविर द्वारा यह वैज्ञानिक विधिकी पूरी जानकारी और अनुभव होना चाहिए। साथ ही साथ प्राण चिकित्सा करेंवाले पात्र को निस्वार्थ भाव से सेवा का अभिगम जागृत करना जरूरी है. प्राण चिकित्सक इस विधिको प्राकृतिक रूपसे करेने में खुद निमित्त कर्ता के रूपमें कार्यरत हे यह भावना से ही यह सेवाकार्य करना चाहिए. यदि कोई अहं पूर्ण भावसे अपने दम पर ही यह शुरू कर देता है तो मरीज की बीमारी को वह अपने पर लागू करके स्वयं का नुकसान  करने की पूरी संभावना है और उसके बाद , उसका कोई इलाज नहीं है।

प्राण चिकित्सा करने वाले व्यक्ति का उदेश्य नेक और भावना समर्पणकी ही होनी चाहिए तभी वह यह सेवामय कार्य कर सकता है.

आवश्यक चेतावनी: प्राण चिकित्सा प्रणाली सरकार या मेडिकल चिकित्सा विज्ञान द्वारा कानूनी रूप से प्रमाणित नहीं है। इस चिकित्सीय प्रणाली को आध्यात्मिक और मानसिक स्तर पर निस्वार्थ सेवा के आधार पर बनाया गया है। चिकित्सकों और प्राण चिकित्सकों दोनों को इस संबंध में समज के ही काम करना चाहिए, ताकि दोनों पात्रों के बीच कोई कानूनी और चिकित्सीय टकराव न हो। चूँकि यह विधि केवल निस्वार्थ सेवा की नींव पर बनाई गई है, प्राण चिकित्सक को रोगी से किसी भी प्रकार का शुल्क नही लेना है ऐसी सलाह गुरूजी श्री विभाकर पंड्याने प्रत्येक साधक को दीक्षा के दौरान प्यार से समझाई है और वर्तमान में गुरुजी विशाल भाई भी सभी को यही बात समझाते हैं। साधकोको सूचित करने के लिए ही हम इस बात को यहाँ दोहराते है.

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